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________________ जैनाचार्य और मुनिवर्ग. (१९९) मूर्ती है इनसे श्रद्धा मजबूत रहती है। धर्म गौरव बना रहता है सेवापूजा से प्रात्मकल्यान होता है जहां मुनियों का विहार देरी से होता हो तो भी उन मन्दिर मूर्ती के जरिए ही वह अपने धर्म में स्थिर रह सके हैं इतना ही नहीं पर उन मन्दिर मूर्तियों के माधार पर भाज इतिहास भी पुकार पुकार कर कह रहा है कि एक समय भारत के कोने २ में जैनधर्म प्रचलित था इतना ही नहीं पर भास्ट्रीया और अमेरिका में भी खोद काम करते समय कतिपय जगह; जैन मूर्तियों निकलती है। इस से उन लोगों का अनुमान है कि एक समय वहां भी जैनधर्म अस्तित्व रूप में था, यह हमारे प्राचार्यों के उपदेश और विहारक्षेत्र की विशालता का परिचय है उन प्राचार्यों की दीर्घदृष्टी और कुशलता का ही फल है कि भाज शत्रुजय, गिरनार, आबु, तारंगा. और शिखरजी जैसे पहाड सैकडो जिनालयों से शोभित है। आज जैन जनता की संख्या कम हो गई है पर जैनधर्म के स्थंभरूप तीर्थ मन्दिरों को देखते हुए जैनधर्म का गौरव संसारभरमें कम नहीं पर सब से चढबढ कर के है, यह हमारे पूर्वाचार्यों की कृपा का ही फल है । जैनाचार्य अपने उपाश्रय के पाटे पर बैठकर केवल श्रावकों को ही जैनधर्म नहीं सुनाया करते थे, परन्तु वे राजा महाराजानों की सभा और पब्लिक में अपने धर्म की सुंदर महत्वता निडरता से समझाने में प्रयत्नशील रहते थे, उस जमाने में जहांपर जिन विधर्मियों का विशेष जोर था वे सत्य धर्म प्रदर्शित प्राचार्यों पर भनेक भाप माकमण और संकट करने में भी कभी नहीं रखते
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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