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(५८) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. फल भवान्तरमें अवश्य मिलता है इस कारण जीव चतुर्गतिमें परिभ्रमण करतेंको अनंतानंतकाल निर्गमन हो गया । अन्वलतों जीवको मनुष्य भव ही मिलना मुश्किल है कदाच मनुष्य भव मिल भी गया तो पार्यक्षेत्र, उत्तमकूल, शरीर आरोग्य, इन्द्रिय परिपूर्ण, और दीर्घायुष्य, क्रमशः मिलना दुर्लभ है कारण पूर्वोक्त साधनोके अभाव धर्मकार्य बन नहीं सक्ता है अगर किसी पुन्य के प्रभाव से पूर्वोक्त सामग्री मिल भी जावे पर सद्गुरुका समागम मिलना तो अति कठिन है और सद्गुरु विगरह सद्ज्ञान कि प्राप्ति होना सर्वथा असंभव है कारण जगतमें एसे भी नामधारि गुरु कहला रहे है कि यह भांग गंजा चडस उडाना मांस मदिराका भक्षण करना यज्ञ यागादिमें हजारों लाखों निरापराधि प्राणियोंका बलिदान करना और धर्मके नामप. व्यभिचार यानि ऋतुदान पण्डदान वगैरहसे आप स्वयं डुबते है और उनके भक्तों को भी वह गेहरी खाड अर्थात् अधोगतिमें साथ ले जाते है ।
हे राजन् ! कितनेक पाखण्डि लोगोंने केवल अपना अल्प स्वार्थ के लिये विचारे भद्रिक जीवो को अपनि जालमें फसानेके हेतु एसे एसे ग्रन्थोंकी रचना भी कर डाली है कि
मद्यं मासं च मीनं च । मुद्रा मैथुन मे वच । ए ते पंच मकारश्च । मोक्षदा हि युगे युगे। १ ।
अर्थात् ( १ ) मदिर ( २) मांस ( ३) मीन ( जलके जीव ) ( ४ ) मुद्रा ( ५ ) मैथुन इन पांच मकारका सेवन