SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूरीश्वर की धर्मदेशना. (५७) जिस द्रव्य के लिये दुनियो मर कट रही है उनकी इन महात्माको परबा ही नहीं है अहो आश्चर्य इत्यादि विचार करते हुवे सब खजानची व श्रेष्ठि वगैरह राजा के पास आये और सब हाल सुनाये आचार्यश्रीकी निःस्पृहीताने राजाके अन्तकरणपर इतना तो जोरदार असर डाला कि वह चतुरांग शैन्या और नागरिक जनों को साथ ले सूरिजी के दर्शनार्थ बडे ही आडम्बर के साथ आये । आचार्यश्री को वन्दन कर बोला कि हे भगवान् ?. आपने हमारे जैसे पामर जीवों पर बड़ा भारी उपकार किया है निस्का बदला इस भवमें तो क्या परन्तु भवोभवमें देनेको हम लोग असमर्थ है वास्ते हम लोग आपके रूणि (करजदार ) है और फिर भी रूणि होनेकों हमारी इच्छा आपश्रीके मुखार्विन्दसे धर्म श्रवण करनेकी है कृपया आप महेरबानी करावें. इसपर आचार्यश्रीने उन धर्म जिज्ञासुओं पर दया भाव लाके उच्चस्वर और मधुर भाषासे धर्मदेशना देना प्रारंभ किया हे राजेन्द्र ! इस पारापार संसारके अन्दर जीव परिभ्रमण करते हुवे को अनंताकाल हो गया कारण कि सुक्षमबादर निगोदमें अनंतकाल, पृथ्वीपाणि तेउवाउमें असंख्याताकाल, और वनस्पति में अनंतानंतकाल परिभ्रमन कीया बाद: कुच्छ पुन्य बड जानेसे बेन्द्रिय एवं तेन्द्रिय चोरिन्द्रिय वीर्यच पांचेन्द्रिय व नरक और अनार्य मनुष्य वा अकाम निर्जरादिसे देव योनिमें परिभ्रमन किया पर उत्तम सामग्री के प्रभाव शुद्ध धर्म न मिला, हे राजन् ! शास्त्रकारोंने फरमाया है कि सुकृत कार्योंका सुकृत फल और दुष्कृत्य कार्योंका दुष्कृत्य
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy