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जैन जाति महोदय. स्वीकार करा महाजन संघ में मम्मिलित करा देते थे। उसी प्रकार निरन्तर उद्योग के फलस्वरूप जो जाति लाखों की संख्या में थी वह कोडों की संख्या तक पहुंच गई । महाजन संघ की जन संख्या इतनी बढ़ी कि प्रत्येक वंश में कई शाखा प्रशाखाएं हो गई। कालान्तर इस प्रकार महाजन वंश भिन्न भिन्न शाखाओं में बँट गया । प्रत्येक शाखा बाद में एक पृथक जाति समझी जाने लगी। सब अपनी अपनी जाति को उचा सिद्ध करने लगे और इस प्रकार जाति भेद भाव का विषैला भाव महाजन संघ में फैल गया । वास्तविक प्रत्येक जाति अमिभान में अंधी हो गई।
इस प्रकार को फूट फजीती का फल वही हुआ जो प्रायः ऐसे अवसरों पर होता है। प्रत्येक वंश वाले ही आपस में विवाह शादी आदि करने की आंतरिक अभिलाषा रखते थे । उपकेश वंशी लोग अपनी विवाह शादी यथा सम्भव उपकेश वंश ही में करना चाहते थे तथा इसी प्रकार श्रीमाल वंशी और प्राग्वट वंशी अपनी अपनी धुन में मस्त रहना चाहने लगे । पर यह नियम अनिवार्य नहीं था। उपकेश वंशी अपना विवाह शादी का सम्बन्ध श्रीमाल वंश आदि से भी रखते थे ऐसा ऐतिहासिक खोज से मालूम हुआ है विक्रम की दसवीं शताब्दी तक तो इनका पारस्परिक सम्बन्ध जारी था यह बात शिलालेख बताते हैं । वंशावलियों के देखने से मालूम हुआ है कि विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी तक महाजन संघ में कहीं कहीं इस प्रकार के पारस्परिक सम्बन्ध होते थे। इस समय के बाद में भाव