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प्रस्तावना. . (११) फिर भगवान महावीरस्वामी के निर्वाण के ३०-४० वर्ष पश्चात् प्राचार्य स्वयंप्रभ सूरि और आचार्य श्री रत्नप्रभ सूरि हुए जिन्होंने मरुस्थल में पदार्पण कर वाममार्गियों के व्यभिचार रूपी किले का विध्वंस कर ' महाजन संघ' की स्थापना की। इस संघ के व्यक्तियों के हृदय की विशालता इतनी थी कि वे निसंकोच भाव से किसी भी जैनी के साथ भोजन ही नहीं कर लेते थे अपितु परस्पर विवाह शादी भी कर लेते थे। वे अपने स्वधर्मी भाई को प्रत्येक तरह से सहायता देते थे। ज्याँ ज्याँ महाजन संघ का विस्तार होता गया त्यां त्यां पूर्व जातिय बंधनो की श्रङ्खला टूटती गई और पारस्परिक सहानुभूति तथा सहयोग निरन्तर बढ़ता गया । जो शक्ति जातीय विभागों के कारण पृथक २ थी यह एक्यता के सूत्र में संयोजित हो गई ।
महाजन संघ की बढ़ती दिन प्रतिदिन उत्तरोत्तर वृद्धिगत होती रही। समयान्तर में यही महाजन वंश उपकेशनगर के नाम से उपकेश वंश, श्रीमालनगर से श्रीमालवंश तथा पद्मावती नगरी के नाम से प्राग्वट वंश, इस प्रकार के तीन वंशों के नाम द्वारा प्रसिद्ध हुआ यद्यपि नगर के नाम पीछे इन के वंश भिन्न समझे जाने लगे किन्तु परस्पर भोजन व्यवहार व विवाह सम्बन्ध आदि उसी प्रकार प्रचलित था । इस प्रकार ये तीनों वंश व्यवहारिक रीति से एक ही थे। जैनाचार्य भी इम वंश की वृद्धि करने में हर प्रकारसे तत्पर थे वे समय समय पर मिथ्यात्वियों को प्रतिबोध दे देकर उन्हें जाति के बंधनों से उन्मुक्त कर वासक्षेप डाल जैन धर्म