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________________ (७२) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. मीला, हे दयालु ! आज हमारा सब भ्रम दूर हो गया है न तों जैन नास्तिक है न जैनधर्म जनताको निर्बल कायर बनाता है न ईश्वरको माननेको इन्कार करते है पर जिसमें ईश्वरत्व है उसे जैन लोग, ईश्वर (देव ) मानते है जैन धर्म एक पवित्र उच्च कोटीका सनातनसे, स्वतंत्र धर्म है। हे विभो ! इतने दिन हम लोग मिथ्यात्व रुपी नशेमें इतने तो बेभान हो गयेथे कि मिथ्या फाँसीमें फँस कर सरासर व्यभिचार-अधर्मको भी धर्म समझ रखा था, सत्य है कि विना परीक्षा मनुष्य पीतलको भी सोना मान धोका खा लेता है वह युक्ति हमारे लिये ठीक चरितार्थ होती है । हे भगवान् । हम तो आपके पहेलेसही ऋणि है और भी आप श्रीमानोंने एक हमारे जमाइको ही जीवतदान नहीं दीया पर हम सबको एक भवके लिये ही नहीं किन्तु भवोभवके लिये जीवन दीया है इतनाही नही बल्कि नरकके रास्ते जाते हुवे जीवोंको स्वर्ग मोक्षका रास्ता बतला दिया है इत्यादि सूरिजी के गुण कीर्तन कर राजाने कहा कि हम सब लोग जैनधर्म स्वीकार करने को तैयार है आचार्यश्रीने कहा “ जहासुखम् " इस सुअवसर पर एक नया चमत्कार यह हुवा कि आकाशमें सनघन अवाजो और झणकार होना प्रारंभ हुवा सब लोग उर्ध्व दृष्टि कर देखने लगें इतनेमें तो वैमानोंसे उत्तरते हुवे सालंकृत अर्थात् सुन्दर वनभूषण धारण किये हुए सेंकडो विद्याधर नरनारिये अपने कोमल कण्ठसे गुण करते हुए सूरिजी महाराज के चरण कमलोंमें शिर झुका के बन्दना किया और इतनामें तो फिर एकदम झणकार व दुंदुभीनादसे आकाश
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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