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________________ रत्नचुड विद्याधर की दीक्षा. . (३९) मुझे ऐसा अटल नियम है कि मैं उस प्रतिमा का दर्शन सेवा कीये वगर अन्न जल नहीं लेता हुँ मेरी इच्छा है कि भगवानकी प्रतिमा साथ मे रख दीक्षा ले भावपूजा करता हुवा मेरे पूर्व नियमको अखण्डितपने रखं : आचार्यश्रीने अपना श्रुतज्ञानद्वारा भविष्यका लाभालाभपर विचार कर फरमाया कि " जहासुखम् " इसपर रत्नचुड विद्याधरोका राजा बडा भारी हर्ष मनाता हूँवा अपने बैमानवासी पांचसो विद्याघरों के साथ दीक्षा लेने को तय्यार हो गये. .. ____गुरुणा लाभ ज्ञात्वा तस्मै दीक्षा दत्वा" - शेष विद्याधर दीक्षाका अनुमोदन करते हुवे. श्री शत्रुजयादि तीर्थो की यात्रा कर वैताट्यगिरिपर जाके सब समाचार कहा तत्पश्वात् ग्त्नचूड गजा के पुत्र कनकचूड को गज गादी बेठाया और वह सहकुटम्ब आचार्यश्री को वन्दन करने के लिये आये रत्नचूड मुनिका दर्शन कर पहला तो उपालंभ दीया बाद चारित्र का अनुमोदन कर देशना सुन के वन्दन नमस्कार कर विसर्जन हुवे। रत्नचुड मुनि क्रमशः गुरू मदागज का विनय वैयावच्च सेवाभक्ति करते हुवे "क्रमेण द्वादशांगी चतुर्दश पूर्वी बभूव" कहने कि आवश्यक्ता नहीं है कि पहले तो आपका जन्म ही विद्याधर वंशमे हुवा, दूसरा श्राप विद्याधरों के गंजा थे तीसरा विद्यानिधि गुरु के चरणाविंद की सेवा की फिर कमी कीस वात की ? आपश्री स्वल्प समयमे द्वादशांगी चौदापूर्वादि सर्वागम और अनेक विद्या के पारगामि हो गये इतनाही नहीं पर धैर्य गांभिर्य शौर्य तर्कवितर्क स्याद्वादादि अनेक गुणोमें निपुण हो गये. घर प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि शासनोन्नति, शासनसेवा आदिकर अनेक
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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