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जैन जाति महोदय प्र० तीसरा.
भव्यों का उद्धार करते हुवे अपनि अन्तिमावस्था देख के रत्नचुडमुनिको योग्य समझ प्राचार्य पदार्पण किया.
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गुरुणा स्वपदे स्थापितः श्रीमद्वीरजिनेश्वरात द्वपंचाशत वर्षे (५२) प्राचार्यपद स्थापिताः पंचशत साधुसह घरां विचरन्ति "
भगवान् वीरप्रभुके निर्वाणात् ५२ वर्षे रत्नचुडमुनिको प्राचार्यपद पर स्थापनकर ५०० मुनियोंके साथ भूमण्डल पर विहार करने की प्राचार्य स्वयंप्रभसूरिने आज्ञा दी. अन्य हजारों मुनि श्राचार्य रत्नप्रभसूरि की श्राज्ञासे अन्योन्य प्रान्तोंमें विहार करने लगे, इधर स्वयंप्रभसूरि संलेखना करते हुवे अन्तमे श्री सिद्धगिरिपर एक मासका अनसन कर स्वर्गमे श्रवतीर्य हुवे इति पार्श्वनाथ भगवान् का पंचवापट्ट पर प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि हुवे ।
श्रापश्रीने अपने पवित्र जीवनमें वर्ण जंजिरो को तोड " महाजन " संघकी स्थापना कर जैन धर्मपर बडा भारी उपकार किया करीबन् २० लाख जनता को जैनधर्म की दीक्षा दी प्राकाश में चन्द्रसूर्य का अस्तित्व रहेगा वहां तक जैन जाति में आपका नाम
म रहेगा जैन कोम सदैव के लिये आपके उपकार की आभारी हैं कारण श्रीमाल पोरवाड जातियों की स्थापना और अनेक राज्य महाराजा को धर्मबोध | लाखो पशुओ को जीवसदान और यज्ञ में हजारों पशुओका बलिदानरूप मिथ्यारुढियो का जडामूलसे नष्ट कर देना इत्यादि बहुत धर्म्म व देशोन्नति हुई. यह सब आपश्री की अनुग्रह कृपाकाही फल है
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