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________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि (४१) (६) प्राचार्य स्वयंप्रभसरि के पट्ट प्रभाकर जो मिथ्यात्वान्धकार को नाश करनेमे भास्कर सदृश अनेक चमत्कारी विद्याभो भूषित सकल आगम पारगामी और विद्याधर देवेन्द्र नरेन्द्र से परिपूजित प्राचार्य रत्नप्रभसूरि (मुनि रत्नचुड) हुवे इधर जम्बुस्खामिके पट्टपर प्रभवस्वामि भी महा प्रभाविक इनका विहार पूर्व बंगाल उडीसा मागध अंगादि देशों में भौर रत्नप्रभसूरि का विहार प्रायः गजपुताना, व मरूस्थल की तरफ हो रहा था दोनो प्राचार्यो की आज्ञावृति हजारो मुनिपुंगव पृथ्वीमण्डल पर विहार कर जैनधर्मका खुब प्रचार कर रहे थे यज्ञबादियो का जौर बहुत कुच्छ हट गया था पर बोद्धोंका प्रचार कुच्छ २ बढ रहा था केह राजाश्रोने भी बौधधर्म स्वीकार कर लीया था तद्यपि जैन जनता की संख्या सबसे विशाल थी. इसका कारण जैनमुनियो की विशाल संख्या और प्रायः सब देशो मे उनका विहार था. दूसरा जैनो का तत्वज्ञान और प्राचार व्यवहार सबसे उच्च कोटी का था जैन और बौद्धोंका यज्ञनिषेध विषय उपदेश मीलता जुलता ही था वेदान्तिक प्रायः लुप्तसाहो गये थे. जैन और बौद्धो के मापसमे कबी कबी वाद विवाद भी हुवा करता था. प्राचार्य रत्नप्रभसूरि एकदा सिद्धगिरि की यात्रा कर अपने श्रमण संघ के साथ अर्बुदाचल की यात्रा करन को पधारे थे वहांपर एक समय चक्रेश्वरी देवीने मूरिजीको विनंति करी की हे दयानिधि ? आपके पूर्वजोने मरूभूमि की तरफ विहार कर अनेक भव्यों का कल्याण कीया असंख्य पशुओं की बलिरूपी 'यज्ञ' जैसे मिथ्यात्व को समूल से नष्ट कर दीया पर भवितव्यता वशात् वह श्रीमालनगर से आगे नहीं बड सके। वास्ते अर्ज है कि भाप जैसे समर्थ महात्मा उधर पधारे तो बहुत लाभ
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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