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________________ (६६) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. ब्रत नियम नहीं लेनेपर भी निम्नलिखित जैन तत्त्वज्ञान का अभ्यास कर उसपर पूर्ण श्रद्धा प्रतित और रूची रखे जैसे (१) देव भरिहन्त-विश्वोपकारी सर्व जीवों प्रति समभाव जिन्हके पवित्र जीवन और शान्त मुद्रामें एसी उत्तमता उदारता और विशाल भावना है कि उनको पढने सुनने व देखने से ही दुनियों का कल्याण होता है जिनका उदार आगम और धर्म इतना तो विशाल है कि उसको पालन करने का अधिकार सम्पूर्ण विश्वको दे रखा है जी चाहे वह मनुष्य इस धर्म को पाल के सद्गति का अधिकारी बन सक्ता है. एसें सर्वज्ञ ईश्वर को ही देव मानना चाहिये. इस के सिवाय कितनेक लोग अदेव में भी देवबुद्धि कर लेते है कि जिनके पासमें स्त्री है धनुषबान व त्रीशूल और जपमाला हाथमें हो रागद्वेष के विकारीक चिन्ह हो जिनकों मांस मदिर चढता हो एसे देव न तो स्वयं अपना कल्याण कर सके और न दूसरे जो उनके उपासक हो उनका भला कर सके वास्ते ऐसे विकारी को देव नहीं मानना चाहिये. ___ (२) गुरु-निग्रन्थ अर्थात् अभ्यंतर राग द्वेष रूपी प्रन्थी बाप धन धानादि की प्रन्थी इन दोनोंसे विरक्त हो कनक कामिनि और जगतकी सब उपाधियों से मुक्त हो भहिंसा सत्य अचौर्ष प्राचर्य निस्पृहाता एवं पंचमहाव्रत और भचाई सचाई अमाई न्यायि वेपरवायि इत्यादि गुण संयुक्त जिन्हों का जीवन ही परोपकार परायण हो उस को गुरु समजना. इनके सिपाय जो भांग गाजा चढस मांस मदिरादि धमक्ष पदार्थों का भक्षण करता हो जनता
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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