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________________ दर्शन स्वरूप. (६७) को उलटे रास्ते पर चढा के आप व्यभिचार करे और उसमें धर्म बतला के दूसरों से करावे जिसमें कबी गुरुत्व नहीं समजना चाहिये (३) धर्म-निस तीर्थकरदेवने अपने सम्पूर्ण ज्ञान द्वारा जनता का कल्याण के लिये अहिंसा परमो धर्म फरमाया है अलावे दान शील तप भाव क्षमा दया विवेक, कषायोका उपशम इन्द्रियों का दमन् सामायिक (समताभाव) प्रतिक्रमण (पापसे हटना) पौषध ( आत्मा को ज्ञान से पोषण करना ) व्रत प्रत्याख्यान पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्य तीर्थयात्रा संघपूजा नये मन्दिर बनाना, पुराणो का उद्धार करना पूर्वोक्त सब कार्यो में धर्म श्रद्धा रखना. (४) आगम-जिस्मे परस्पर विरोध भाव न हो जिनागमो में तत्त्वज्ञान आत्मज्ञान अध्यात्मज्ञान आसन समाधि योगाभ्यास वगेरह का बयान हों साधुधर्म, गृहस्थधर्म, की मर्यादा अर्थात् प्राचार व्यवहार और आत्मवाद, लोग ( सृष्टि ) वाद, कर्मवाद, क्रियावाद, एवं मोक्ष साधन का सम्पूर्ण ज्ञान हो, अवतारिक यानि तीर्थकर चक्रवर्ती बलदेव, वासुदेव और बडे बडे धर्मवीर कर्मवीरो का जीवन वगेरह वगेरह ऐसा विषय हो कि जिसको पढने सुनने से अपने जीवन में सद्गुणों की प्राप्ति हो, उस को सदागम समझना, पर जिन शास्त्रों में ऋतुदान पण्डदान बलीदान वगेरह मिथ्या उपदेश जो जनता को गेहरी खाड मे डूबाने वाला हो उनकों मिथ्या शास्त्र समझ उनसे दूर ही रहना चाहिये. इन तत्त्वोपर श्रद्धा प्रतित व रूची रखने से जीव सम्यक्
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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