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________________ (६८) जैन जाति महोदय प्र• तीसरा. दर्शन को प्राप्त करलेता है वह जीव भी मोक्ष का अधिकारी हो सकता हैं दूसरा, जो, गृहस्थ धर्म का दरजा है, वह सम्यक्त्व ( जो उपर कहा हुवा तत्त्व श्रद्धाना ) मूल बारहा व्रत है जैसे. (१) पहिला व्रत-हलते चलते त्रस जीवों को विना अपराध मारने की बुद्धि से मारने का त्याग है अगर कोई अपराध करे, व मारने को आवे, आज्ञा भंग करे इत्यादि उनका सामना करना गृहस्थों के लिये व्रत भंग नहीं है. . (२) दूसरा व्रत-एसा झूट न बोलना चाहिये कि राजकानुन से खिलाफ हो अर्थात् राजदंड ले । और लोगों से भंडाचार हो अपनी कीर्ति व प्रतिष्टा में हानि पहुँचे और भी झूटी गवाह देना विश्वासघात व धोखाबाजी राजद्रोह देशद्रोह मित्रद्रोह इत्यादि असत्य बोलने का मना है.. (३) तीसरा व्रत में अन दी हुई वस्तु लेना अर्थात् चोरी करने का त्याग है जो राजदंड ले-लोगों में भंडाचार अर्थात् व्रतधारी की कीर्ति व विश्वास में शंका हो परभव में उन क्रूर कर्म का बदला देना पडे एसे कार्यों की सख्त मना है. . (४) चोथा व्रतमें-स्वदारा संतोष अर्थात् संस्कारयुक्त सादी हुई हो उनके सिवाय परस्त्री वेश्यादि से गमन करना मना है. (५) पांचवा व्रतमें-धन माल. द्विपद चतुषःपद राजस्टेट जमीन वगरह स्व इच्छासे परिमाण किया हो उनसे अधिक ममत्व बढाना मना है. (६) छठाव्रतमें-पूर्वादि छ दिशों में जाने की मर्यादा करने पर अधिक जाना मना है.
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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