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________________ श्रावकधर्म के बारह व्रत. (६९) (७) सातवां व्रत-उपभोग परिभोग कि मर्यादा है जैसे खाने पीने के पदार्थ एक ही वख्त काम में आते है उसे उपभोग कहते है और वस्त्र भूषण स्त्री मकानादि पदार्थ वारंवार काम में आते है उसे परिभोग कहते है इनका परिमाण कर लेनेके बाद अधिक नहीं भोगत्र सक्ते है जिसमें मांस, मदिरा, मध, मक्खन, अनंतकाय, वासी रस चलित भोजन, द्विदलादि कि जिसमें प्रचूर जीवोत्पति होती हैं वह सर्वथा त्याज्य है दूसरा व्यापारापेक्षा जो १५ कर्मादान अर्थात् अधिकाधिक कर्मबन्ध के कारण हो जैसे (१) अग्नि का आरंभ कर कोलसादिका व्यापार, (२) वन कटाके व्यापार, (३) शकटादि किराया से फीराना, (४) किराया की नियत से मकानात बन्धाना व गाडी उंठ वगैरह भाडे फीराना (५) पत्थरकी खानों निकलाना, (६) दान्त, (७) लाख, (८) रस-तैल घृत मधु वगैरह, (९) विष सोमलादि, (१०) केसवाले जानवरों का उन जह का व्यापार, एवं पांच व्यापार, (११) यंत्रतीलआदि, (१२) पुरुष को नपुंसक बनाना, (१३) अग्नि वगैरह लगवाना (१४) सर तलाव का जल को शोषन करवाना, (१५) असति जनका पोषन एवं १५ कर्मादान यानि अपनि आजीवकाके निमित्त एसे तुच्छ कार्य करना व्रतधारि श्रावकोंके लिये मना है. . (८) अनर्थ दंडव्रत है जो कि अपना स्वार्थ न होनेपर भी पापकारी उपदेशका देना। दूसरों की उन्नति देख इर्षा करना-पावश्यक्तासे अधिक हिंसाकारी उपकरण एकत्र करना।प्रमाद के वश हो घृत तेल दुद्ध दही छास पाणि के वरतन खुले रख देना मना है. (९) नौवा व्रतमे हमेशां समताभाव सामायिक करना ।
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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