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________________ लेखक का परिचय. (५५) तब लाभालाभका कारण आप विचारी । ___ द्रव्य क्षेत्रके ज्ञाता आप विचक्षण भारी॥ श्री ज्ञान ० ॥१४॥ वांचे है आगमसार आनन्द पति भावे । संघ चतुर्विध का सुन कर मन ललचावे । अट्ठाई महोत्सव पूजा खूब भणीजे । . श्री चिंतामणि प्रभु पास शान्ति सुख दीजे । अंग्रेजी बाजे साथ प्रभु असवारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ १५ ॥ जैसलमेरके संघमें विघ्न करता । जब लग उनके घरमें कहना चलता। करी विनती भये मुनि अनुरागी । लगा खूब उपदेश विघ्न गये भागी। संघका बनिया ठाठ अतिशय धारी | श्री ज्ञान० ॥१६॥ श्री चिंतामणि पास लोदरवे पाया । ___संघ यात्रा कर आनन्द खूब मनाया । पूजा प्रभावना स्वामीवात्सल्य कीना। धन्य धन्य संघ पनि लाभ बहुतसा लीना । ___ नगर प्रवेशके महोत्सवकी बलिहारी ॥ श्री ज्ञान० ॥१७॥ नरनारी मिल है अर्जी आन गुजारी। शरीर कारणसे विनती आप स्वीकारी । साल गुणियासी चौमासो दियो ठाई । · व्याख्यानमें बांचे सूत्र भगवती माई । याँ बढ़ता रहा उत्साह धर्म हितकारी || श्री ज्ञान० ॥१८॥
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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