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जैन जाति महोदय.
उत्तराध्ययनजी सूत्र व्याख्यान में वांचे । वर्षे वैराग को रंग श्रोता मन राचे ॥
अर्क तेजको देख उलुक धुंधकारी || श्री ज्ञान० ॥ १० ॥
जो धर्म द्वेषि श्ररु मद छकिया थे पूरा ।
जिन वाणीका खड्ग किया चकचूरा ॥
धर्म चक्र तप करके कर्म शिर छेदे । पंचरंगी है तप पूर क्रूरको भेदे |
स्वामिवात्सल्य पांच हुए सुखकारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ ११॥
पौषध का भंड़ा ध्वजा सहित फहराये । वादी मानी यह देख बहुत शरमाये || पर्यूषणका था ठाठ मचा अति भारी |
आए ज्ञान खाते में रुपये दोय हज़ारी ।
तीस हज़ार मिल पुस्तकें छपाई भारी || श्री ज्ञान ० ॥ १२ ॥
स्वामिवात्सल्य दो खीचंद में कीना
यात्रा पूजाका लाभ भव्य जन लीना ।
ज्ञान ध्यान कर सूत्र खूब सुनाये ।
सेंतीस ( ३७ ) आगम सुनके आनंद पाये ।
किया सुन्दर उपकार आप तपधारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ १३ ॥
कई मत्तांध मिल के विघ्न धर्ममें करते । पत्थर फेंक आकाश नीचे शिर धरते ।
इसे विनती करते हैं नरनारी ।