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________________ ( १८ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. वापिस आ गये । सुरिजी को अर्ज करी कि हे भगवान ! यह नगर साधुयोंको भिक्षा लेने योग्य नहीं है अर्थात् यज्ञ संबन्धी सब हाल सुनाये, इस पर करुणासिन्धु सुरिजी महाराज अपने कितनेक विद्वान् शिष्यों को साथ ले राजसभामें गये, जहाँ यज्ञ संबन्धी विचार और सब तय्यारीये हो रही थी और महान् निष्ठुर कर्मके अध्यापक बडे बडे जटाधारी शिरपर खुब भस्म लगाइ हुई गले में सूतके रस्से डाले हुवे मांस लुब्धक मदिरा लोलुपि नामधारी पण्डित बैठे हुये थे, वह सब लोग अनेक कपोलकल्पित वातों से गजाको अपनी तरफ आकर्षित कर रहे थे, कारण नगरी में जैनाचार्यका श्रागमन होने से उनके दीलमें बड़ा भारी भय भी था "" 1 64 सूरीश्वरजी महाराजका अतिशय तप तेज इतना प्रभावशाली था कि पीजी सभा में प्रवेश होते ही राजा जयसेन अपने श्रासन से उठ कर सूरीजी के सामने आया और बडे ही आदर सत्कार से वन्दन नमस्कार किया. सूरिजीने भी राजाको “ धर्मलाभ " दीया इस पर वहां बैठे हुवे नामधारी पण्डित श्रापसमें हँसने लगे । राजाने पूर्व " धर्मलाभ " शब्द कानों से सुना भी नहीं था वास्ते नम्रता के साथ सूरिजीको पुच्छा कि हे प्रभो ! यह धर्मलाभ क्या वस्तु हैं ? क्या आप आशीर्वाद नहीं देते हैं जैसे कि हमारे गुरु ब्राह्मण लोग दिया करते है ? इसपर सूरीश्वरजी महाराजने कहा कि हे राजन १ कितनेक लोग दीर्घायुष्यका आशीर्वाद देते है पर दीर्घायुष्य तो नरक में भी हुवा करता है, कितनेक बहु पुत्रादिका श्राशीर्वाद देते है पर यह तो कुकर कुर्कटादि के भी होते है, कितनेक लक्ष्मी
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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