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________________ ( २६ ) जैन जाति महोदय. कैवलज्ञान प्राप्त कीया भगवान् ऋषभदेवका प्रचलीत कीया हुवा धर्म्मकी वृद्धि करते हुवे सिंहसेनादि एकल मुनि फाल्गुनीन आदि तीनलक्ष तीसहजार आर्थीकाए दोलत ठानवे हजार श्रावक, पंचलक्ष पैतालीसहजार श्राविकाओं का सम्प्रदाय हुआ क्रमशः बहत्तरलक्ष पूर्व का सर्व आयुष्य पूर्ण कर सम्मेतशिखर पर्वतपर चैत शुद्ध ५ को भगवान् मोक्ष पधारे आपका शासन तीसलक्ष कोड सागरोपम तक प्रवृतमान रहा । उस समय प्रायः राजा प्रजाका एक धर्म जैन ही था । ," आपके शासनमें सागर नामका दूसरा चक्रवर्ती हुवा वह अयोध्या नगरीका सुमित्रराजाके यशोमति राणीकि कुक्षीसे चौदहा स्वप्न सूचीत पुत्र हुवा जिसका नाम सागर था वह ४५० धनुष्यका शरीर ७२ लक्ष पूर्वका आयुष्य शेष छे खण्डादिका एक छत्रराज वगैरह भरत चक्रवर्तीकी माफिक जानना विशेष सागरके साटहजार पुत्रोंसे जन्हुकुमार अपने भाईयोंके साथ एक समय अष्टापद तीर्थपर भरतके बनाये हुवे जिनालयोंकी यात्रा करी विशेषमें उनका संरक्षण करनेके लिये चौतरफ खाइ खोद गंगानदीकी एक नहर लाके उस खाई में पाणि भर दीया और जन्हुकुमारका पुत्र भागीरथने उस अधिक पाणीको फारसे समुद्रमें पहुँचा दीया जबसे गंगाका नाम जन्ही व भागीरथी चला पर उस पाणीसे नागकुमारके देवोको तकलीफ होने से उन सब कुमारोकों वहां ही भस्म कर दीया अस्तु ! सागर चक्रवर्ती अन्तमे दीक्षा ग्रहन कर कैवल्यज्ञान प्राप्तकर नाशमान शरीर छोडके आप अक्षय सुखरूपी मो मन्दिर में पधार गये ।
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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