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(९२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. रक्खा है । आचार्यश्रीने मरुस्थल में पर्यटन कर प्राचीन तीर्थों की यात्रा करते हुए कई भव्य जीवों का ग्राम ग्राम में उपदेश देकर उद्वार किया। मन्दिर और विद्यालयों की प्रतिष्ठा कराने का भी
आपने अनवरत उद्योग किया। अनेकों को दीक्षा दी और बड़े बड़े संघ निकलवाए ।
यों तो आपश्री के अनेक शिष्य थे परन्तु लाखण्यमुनि की योग्यता कुछ और ही थी। ये और शिष्योंसे कई बातों में बढ़े चढ़े थे इनकी विशेष अभिरुचि शास्त्रों की ओर थी। सरस्वती की दयासे
आपने स्वल्प समय में सारे आवश्यक शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। प्रथम दूसरों के अनुभवों का अध्ययन किया पश्चात् अपने ज्ञान को भी स्थाई रूपमें दूसरों के लिये रख छोड़ने के परम पवित्र उद्देश्य से आपने ग्रंथ निर्माण करना भी प्रारम्भ किया। धैर्यता, गंभीरता, उदारता, समता, क्षमता, आदि गुणों के कारण आप सर्व प्रिय हो गये थे। इन गुणों के अतिरिक्त वाक्पटुता और भाषण माधुर्यता
आपके व्याख्यान को बहुत सरस और श्रवणप्रिय बना देती थी। उन दिनों यक्षदेवसूरिजी के पास एक आप ही ऐसे सुयोग्य शिष्य थे जो प्राचार्य पदके लिये सर्व प्रकारसे योग्य जंचते थे। इन्ही अलोकिक और उपयोगी गुणों के कारण यक्षदेवसूरिने उपकेश नगर में संघ के समक्ष वासक्षेप की विधि विधानसे आपको आचार्यपद पर सुशोभित किया । प्राचार्य बनाकर इनका नाम ककसूरी रक्खा । यक्षदेवसूरी संघकी बागडोर अपने सुयोग्य शिष्य को सौंप सिद्धगिरि की यात्रार्थ प्रस्थान करने लगे । वहाँ पहुँचकर परम निवृति