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________________ प्राचार्यश्री कक्कसूरि. - (९१) भाव में रत्त हो संलेखना ( अन्तिम तपस्या ) करते हुए अनसन कर स्वर्गधाम को सिघारे । ये श्री पार्श्वनाथ भगवान् के बारहवें पट्ट पर बड़े प्रतापी और जैन धर्म के बड़े प्रचारक आचार्य हुए। ( १३ ) तेरहवें पट्ट पर आचार्यश्री कक्कसूरिजी महाराज बड़े ही विद्वान् हुए । आप उपकेशपुर के भूपति के कनिष्ट पुत्र थे। बाल्यावस्था में ही आपने पिता के साथ यक्षदेवसूरी के पास दीक्षा अंगीकार की थी। आप बालब्रह्मचारी उत्कट तपस्वी अनेक लब्धियाँ और चमत्कारी विद्याओं में पारंगत थे । साहित्य में भी आपकी आदर्श रुचि थी । आपने अपना अधिकाँश समय ज्ञान सम्पादन करने में बिताया था . सरस्वती की श्राप पर विशेष कृपा थी। सारे स्व-परमत्त के शास्त्र आपके हस्तामलक थे। आपको प्रकाण्ड तत्ववेत्ता जानकर वादियों को नर्वदा अपना मुंह छिपाना पड़ता था तथा वे आपसे दूर ही रहते थे । आकाशगमन भी आप लब्धिद्वारा करते हुए शाश्वत एवम् अशाश्वत तीर्थों की यात्रा करते थे ! विविध प्रान्तों में विचरण कर आप जैन धर्म का खूब प्रचार करते थे । श्राप तेजस्वी, तपस्वी और अलौकिक मनस्वी थे । अनेक नृपति गण आपकी मधुर और मृदु वाकुसुधा का पान करने को लालायित रहते थे । आप के धारा प्रवाह व्याख्यान के फल स्वरूप कई प्राणियों का पाप स्खलित होता था । आपके गुण अकथनीय हैं । आप की कमनीय कांति सब को अपनी ओर आकर्षित करती थी। जरावस्था में आप परम निवृति मार्ग के पथिक थे । बाबू और गिरनार की भीम
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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