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चतुर्विध संघस्थापना.
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कृतफल दान शील तप भाव गृहस्थधर्म षट्कर्म बारहात यतिधर्म पंचमहाव्रतादि विस्तारसे फरमाया उस देशनाका असर श्रोताजनपर इस कदर हुवा कि वृषभसेन ( पुंडरिक ) आदि अनेक पुरुष और ब्रह्मीआदि अनेक स्त्रियों भगवान् के पास मुनि धर्मको स्वीकार कीया और जो मुनिधर्म पालनमें असमर्थ थे उन्होने श्रावक (गृहस्थ ) धर्म अंगीकार कीया उस समय इन्द्रमहाराज बत्ररत्नों के स्थालमें वासक्षेप लाके हाजर कीया तब भगवान्ने मुनि आर्थिक श्रावक श्राविका पर वासक्षेप डाल चतुर्विध संघ कि स्थापना करी जिसमें वृषभसेनको गणधरपद पर नियुक्त कीया जिस गणधरने भगवान् कि देशनाका सार रूप द्वादशाङ्ग सिद्धान्तोकी रचना करी यथाआचारांगसूत्र सूत्रकृतांगसूत्र स्थानायांगसूत्र समवायांगसूत्र विवाहपन्नति सूत्र ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र उपासकदशांगसूत्र अन्तगढ़दशांगसूत्र अनुत्तरोववाइ दशांगसूत्र प्रश्नव्याकरणदशांगसूत्र विपाकदशांगसूत्र और दृष्टिवादपूर्वांगसूत्र एवं तत्पश्चात् इन्द्रमहाराजने भगवान् कि स्तुति वन्दन नमस्कार कर स्वर्गको प्रस्थान कीया भरतादि भी प्रभु की गुणगान र विसर्जन हुवे - अन्यदा एक समय सम्राट् भरतने सवाल किया कि हे विभो ! जैसे आप सर्वज्ञ तीर्थंकर है वैसा भविष्य में कोई तीर्थंकर होगा ? उत्तरमें भगवाम्ने भविष्यमें होनेवाले तेवीस तीर्थंकरों के नाम वर्ण आयुष्य शरीरमानादि सब हाल अपने दिव्य कैवल्यज्ञानद्वारा फरमाया ( वह आगे वताया गया है.) इसकि स्मृतिके लिये भरतने अष्टापद पर्वतपर २४ तीर्थकरों के रत्न सुवर्णमय २४ मन्दिर बनाके उसमे तीर्थ