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________________ सूरिजी और देवी सचायिका । ( ४७ ) रहे थे जिसके अन्दर देवीने कहा भगवान् ! आपने अथाग परिश्रम उठा के जैन धर्म का वड़ा भारी उद्योत किया सूरिजीने कहा देवी ! " इस उत्तम कार्य में निमित कारण तो खास आपका ही है " देवीने कहा प्रभो ! " आप और आपकी सन्तान इसी माफिक घूमते रहेंगे तो आपके पूर्वजों की माफिक आप भी प्रत्येक प्रान्त में जैनधर्म का खुब प्रचार कर सकोंगे " 1 आपनीने फरमाया कि बहुत खुसी की बात है हमारा तो जीवन ही इस पवित्र कार्य के लिए है इत्यादि, बाद देवीने वन्दन कर निज स्थान की और प्रस्थान किया | इधर शिवनगर में एक तरफ जैन धर्म की तारीफ - प्रशंसा हो रही है तब दूसरी और पाखण्डियोंने अपना वाडा बन्धी के लिए भर मार परिश्रम करना सुरु किया जो शुद्र लोग थे कि जिनको वह लोग धर्म श्रवण करने का भी अधिकार नहीं दीया इतना ही नहीं पर बे कुछ गिनती में भी नहीं थे पर आज उनको भी मांस मदिरा और व्यभिचारादि की लालच बतला के पrafts लोग अपने उपासक बना रखने की ठीक कोशीष कर रहे हैं बात भी ठीक है कि दुराचारियों का जोरजुल्म ऐसे अज्ञान लोगो पर ही चल सक्ता हैं अगर आचार्यश्री चाहते तो उन नास्तिकों का दमन करवा सक्ते पर उन्होंने ऐसा करना उचित नहीं समझा कारण धर्म पालना या न पालना भात्म भावना पर निर्भर है न कि जोरजुल्मपर | N
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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