SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 723
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १३२ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. उतारु है । वररुचि का भला हो कि मुझे सावधान कर दिया | शकडाल तो अंतमें कपटी ही निकला । दूसरे दिन राजसभा भरी । राजाने शकडाल की और आंख उठा कर देखा तक नहीं । चतुर मंत्री संकेत मात्र से समझ गया कि बात क्या है ! सभा विसर्जन होते ही शकडालने अपने पुत्र श्रीयक को कहा कि कल मैं राजसभामें जाकर तलपुट नामक विष भक्षण करूँगा । उस समय तू मेरी गरदन तलवारसे उडा देना । पुत्र ने कहा मेरे से ऐसा होना असम्भव है । क्या पुत्र भी पिता का घात कर सकता है ? शकडालने समझाया कि यदि ऐसी कोई पारिस्थिति आन पड़े तो पिता का वध करना भी न्यायसंगत है । पिताने पुत्र को समझा कर बता दिया कि अब अपनी कुशल इसी बातमें है अन्यथा सारा का सारा कुटुम्ब राजा के हाथ से किसान किसी दिन मारा जायगा । श्रीयक के समझमें सब बात आई | दूसरे दिन जब राजा सभामें बैठा हुआ था तो शकडालने पहुँचते ही तालपुट नामक विष का गुप्तपने भक्षण किया। श्री कने तत्काल खड्ग निकाल निर्भीकतापूर्वक पिता की गरदन उड़ा दी । राजाने आर्यान्वित हो कर पूछा, कहो श्रीक । पिता का वध क्यों किया ? श्रीयकने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया कि ऐसे पिता के जीवित रहने से क्या लाभ जो अपने स्वामी की घात करने के लिये अवसर ताक रहा हो । मुझसे अपने पिता की नमक हरामी देखी नहीं जाती थी । राजा, श्रीयक को अपना रक्षक समझ अति प्रसन्न हो कर अभिवादन करते हुए कहने लगा कि 1
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy