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________________ आचार्यश्री स्थुलीभद्र । ( १३३ ) तुम अब मंत्रीपद को सुशोभित करो। श्रीयकने कहा कि मैंने मंत्रीपद के लोभसे पिता की हत्या नहीं की है। यदि आप को मंत्रीपद देना ही है तो मेरे उयेष्ट बन्धु स्थूलीभद्र को दीजियेगा । वह वेश्या केश्या के यहाँ कई वर्षो से रहता है । राजाने स्थूलभद्रको 1 बुलाकर कहा कि तुम्हारे कनिष्ठ भ्राता की नमकहलाली पर प्रसन्न हो कर मैं यह इच्छा करता हूँ कि तुम्हारे ही कुल का सचिव फिर मेरी रक्षा में सदा तत्पर रहे । स्थूलीभद्रने कहा कि मैं यकायक इस पद को स्वीकार करना नहीं चाहता कुछ विचार कर के आप को उत्तर दूँगा । स्थूलभद्रने अशोकोद्यानमें एकान्तमें बैठ कर विचार किया कि यह मंत्रीपद क्या मुझे सुखप्रद होगा ? उसने जान लिया कि कदापि नहीं. आज मेरा पिता इसी मंत्रीपद के कारण अकाल ही काल कवलित हुआ । मैं नहीं चाहता हूँ कि अपने आप यह आफत मोललूँ | यह संसार असार है । कोई भी किसी का नहीं । मंत्रीपद पर रोहित होकर मैं सारे राज्य की झंझटों में फँस कर जितना परिश्रम करूँगा उतना श्रम यदि मैं अपना आत्मा के कल्यान में करूँ तो निःसंदेह मेरा उद्धार हो जाय । अब राजा को तो धर्मलाभ ही से अभिवादन दूंगा । यह निश्चय कर उसी स्थल पर आपने रत्नकम्मल का रजोहरण बनाया । पवित्र मुनि वेष धारण कर राजा के दरबार में जा कर धर्मलाभ कह सुनाया । जो सभा स्थूलभद्र को मंत्री के रूप में देखने की प्रतीक्षा कर रही थी वही सभा साधु के वेश में स्थूलीभद्र को देख कर अ
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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