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________________ (१३४) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. वाक् रह गई । सब ओर से धन्य ! धन्य ! की आवाज सुनाई दी। राजा और प्रजा इन के अपूर्व त्याग पर मुग्ध हो कर भूरि भूरि प्रशंसा करने लगी । स्थूलीभद्रने आचार्यश्री सम्भूति विजयसूरि के पास जाकर दीक्षा ग्रहण की । आचार्यश्री के पास रह कर आपने ग्यारह अंगों का अाराधन किया। आचार्यश्री सम्भूतिविजयप्तरि बड़े उग्र तपस्वी एवं प्रतिभाशाली मुनि थे । आपने उत्सर्ग मार्ग पर चल कर दुःसह परिसहों को सहन किया । एक वार चार मुनियाँने प्राचार्य श्री के पास आकर आज्ञा मांगी कि भगवन् हम चारों मुनि एकल प्रतिमाधारी पृथक् पृथक् स्थानों में चतुर्मास करना चाहते हैं । एक मुनि सिंह की गुफा में, तो दूसरा सर्प की बाँबी पर रहेगा । तीसरा स्मशान में तो चतुर्थ स्थूलीभद्र मुनि कोश्या वेश्या के यहाँ चतुर्मास करेगा। आचार्यश्री सम्भूतिविजयसूरिने श्रुतज्ञान के द्वारा उपयोग लगा कर देखा तो ज्ञात हुआ कि चारों को आज्ञा देना ही ठीक है। तीनों मुनियोंने तो कठिन उपसर्ग सहन करते हुए सफलता प्राप्त करी पर स्थूलीभद्रजीने बारह वर्ष से परिचित कोश्या वेश्या के हावभावों से मोहित न होते हुए उनको उपदेश दे दे कर शुद्ध भाविका बनाई । चतुर्मास के बाद चारों मुनि गुरु के समीप पाए । गुरुने सब को धन्यवाद दिया और स्थूलीभद्र मुनि को दुष्कर दुष्कर कारक की उपाधि से सम्बाधित किया । आचार्यश्रीने कहा कि धन्य है स्थूलीभद्र को जिस वेश्या के साथ बारह वर्ष पर्यन्त विलास. किया उसका उद्धार कर दिया। इस दुष्कर कार्य
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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