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( ७६ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छठा. पिता के बराबर उम्मरवाले अधमनर का संबन्ध जोड देना क्या यह अधम और व्यभिचार नहीं है पुत्री गमन के पापसे नरक समझनेवालों को क्या इस अकृत्य कार्यमें उसी पाप का अनुभव नहीं करना पडेगा ? परन्तु उन विषयवासना वशीभूत हुए नरपिशाचों को परभव के दुःखों की परवाह ही क्या है चाहे पचास
और साठ वर्षों की उम्मर हो जाय तब भी उन की लग्नपिपासा नहीं मिटती हैं वे तो धन का लोभ देकर गरीब मातापिता की दस बारह वर्ष की निरापराध निर्दोष बालिका की गर्दन पर छुरा चला ही देते हैं उनको रूपयों पैसों की तो पर्वाह ही नहीं है, गरीब मा बाप अपनी प्रिय सन्तान को उनकी पिशाचवृति पोषन करने के लिए वृद्ध कसाइयों के हाथ बच देते हैं पराधिन बालिकाएँ अपनी मानसिक व्याथा को मातापिता और बन्धु बान्धवो के आगे नहीं रख सक्ती उन बिचारी को तो दुष्ट मातापिता के सामने शिर झूका कर उनकी माझा को माननाही पडता है। इतनाही नहीं पर अपने आ जन्म सुखों को तिलाञ्जली दे करके भारत की सभ्यता का पालन करना ही पड़ता है वे अबोध ललनाएं अपना सर्वस्व स्वाहा करके मातापिता की लाज रखें और दुष्ट बुड्ढे खुराट उनकी तनीक भी पर्वाह न करें उनकी भावी इच्छाओं पर पर्वत सा बोझ गलकर समूल नष्ट करदे यह कितना हृदयमेदी अन्याय है और धन के लोभी मातापिता-अपनी प्यारी कन्याओं को मुडदों के हाथमें समर्पण करते हुए वह राक्षस पिता यह विचार नहीं करते हैं कि इनकी