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________________ ( ८२ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छहा. अधम्मनर जगह जगह तैयार मिलते हैं। अगर हमारे श्रीमन्त वर्ग चालीस पचास हजार रूपये देकर अपनी जर्जरीत वृद्धावस्थामें विषय वासना के वस न होते तो कन्या विक्रय जैसा यह अद्धम व्यापार इतनी हद तक कभी नहीं पहुंचता पर उनको इतना संतोष कहां है ? परभव का डर कहां है ? लोगों की लज्जा कहां है ? बाल ललनाओंकी दया कहां है ? वह तो कन्या को तुल में बैठा कर के उससे कई गुनी धन की थैलियों गुपचुप दे देते हैं, इतना ही नहीं पर हजारों रूपये तो पापी दलाल ही उडा जाते हैं। इसी कारण से आजकल लडकियों के पांच दस हजार रूपैये लेणा तो साधारण वात समझी गई है। इस पापाचारके लिये कन्या का जन्म तो मानों एक दर्शनिक हुण्डी है, जैसे किसान लोग पीक पाक पर मौज मजा करते है, वैसे ही वह नीच अद्धम माता पिता उन लडकियों के जन्मसे ही मौज मजा उडाया करते है धनकी थैलीयों और नोटोंक थोकडीयों के लोभ में अन्ध हो अपने खून से पैदा हुई प्यारी बालिकाओं को वृद्ध नर पिशाचों के हाथ बेचने वाले माता पिता मानों कसाइयों से भी क्रूर कर्मी और घातक है ऐसे जीवित बालिकाओं का मांस बेचनेवाले राक्षस माता पिता को देख कर कर से कर कर्म करनेवाले भी एकदम कम्प उठते है। ऐसे जीवित मांस को बेचनवाले माता पिता से भी उस को खरीदने वाले बुझे खुरांट अधिक नीच दिखाई देते हैं, कारण वे धन की थलियों आगे रख कर के उन अद्धम मातपिता के मन को ललचा देते हैं; और प्रकल
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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