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________________ कन्याविक्रय. ( ८१ ) जैन शास्त्रो में तो ऐसे अद्धम नरकगामी कार्य को स्थान क्यों मिले, पर जैन जातियों के न्याति कानून कायदो में भी इस दुष्ट व्यापार को किसी भी जगह अर्थात् अपवाद में भी स्थान नहीं दिया था, इतना नहीं पर इतर जातियों में जो ' चौरासी ने चुड़ो' की कहावत थी पर जैन संसार तो उसको भी सच्चे दिल से विकारता था, परन्तु कालकी विक्राल गतीसे जमाने ने पलटा खाया कि आज वही जैन संसार उस दुष्ट रिवाज का ठेकेदार बन बैठा है । क्या यह एक शरमंकी बात नहीं है ? जैनों के सिवाय जैनेतर शास्त्रों में भी कन्याविक्रय को खूब ही विकारा है जैसे "स्व सुतानं चयोमुक्ते स मुक्ते पृथ्वीमलम् "। अर्थात् कन्याविक्रय के धनको खाते हैं, वे महा पापी घोर नरक में जाते हैं इतना ही नहीं पर वह अन्न भी अपवित्र है, वह खाने से बुद्धि विध्वंस हो जाती है फिर सुनिए कन्या वित्तेन जीवन्ती । ये नरा पाप मोहिता । ते नरा नरकं यान्ति । यावद्भूत संप्लवम् ॥ अर्थात्ः – जो कन्या के द्रव्यसे जीवन पोषण करता है वह मनुष्य पाप में मोहित हो करके नरक में निवास करता है कहां तक ? कि जब तक पृथ्वीमण्डल रहता है वहां तक नरक और नरक जैसे दुःखों से नहीं छूटते है । कन्या के घर का पाणी को हराम समझनेवाले श्राज नीतिकारों की आज्ञा को ठोकर मार कर थेलियों की थेलियों हजम करने को
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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