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________________ ( ९५ ) जैन जातिमहोदय प्रकरण छट्ठा. की संख्या में अपने पवित्र पतिवृता धर्म को, व अमूल्य शील रत्न को तिलाञ्जली देकर दुःशील वृत्ति को स्वीकार कर रही हैं, इतना ही नहीं पर अपने सत्य धर्म से पतित हो विधर्मियों का सरण लेती है। क्या यह शर्म की बात नहीं है ? आज हमारी समाज के धनाढ्य वीर! बिवाह सादियों ओसर मोसर कारानुकता कोरट कचेरीयों फेन्सी पोषाकादि फाजुल खरच में चार दिनों की वाहवाहके लिए अपनी गाढी कमाई के लाखों क्रौड़ों रूपये व्यय कर रहे हैं। पर अपने स्वधर्मि भाइयों की और कितना लक्ष है कि वह किस दुःखके मारे धर्म से पतित होते जा रहे है समाज नेतोंको जरा समय की ओर ध्यान देना भी बहुत जरूरी है। शास्त्रकारोंने सात क्षेत्र को बराबर बतलाए है पर जिस समय जिस क्षेत्रमें अधिक आवश्यक्ता हो, उस का अधिक पोषण करना चाहिए । तो क्या अन्योन्य धर्म कार्य के साथ श्रावक भाविका क्षेत्र की आवश्यक्ता नहीं है ? अगर पूर्वोक्त कार्यों को गौण रखें और आवश्यक कार्यों को मुख्यतया समझके, उनके लिए प्रयत्न क्यों नहीं किया जाता है ? एक तरफ तो हमारा नौवाड़ विशुद्ध ब्रह्मचर्यव्रत लोप होता जा रहा है दूसरी तरफ जो कानों में सुनने से भी पाप माना जाता है, वैसे पुनर्लन का आन्दोलन मच रहा है, इस हालत में भी हम माल-मिष्टान्न उड़ाने में और गाजे बाजे बजाने में हमारी उन्नति समझ रहे हैं ? यह कहांतक उन्नति है ? समाज हितैषी मुनि महाराज, व अच्छे अच्छे विद्वान् नेता, और पत्र सम्पादक अपनी नेक सलाह से पत्रों के कालम के कालम भर कर के पुकार कर रहे हैं, कि जहांतक समाज से बाल
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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