SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 901
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (६५) जैन जाति महोदय प्रकरण कहा. विचारशक्ती और मनोबल तो कबसे ही रफूचक्कर हो गया है। थोडेसे . परिश्रमसे शिरमें दर्द होने लग जाता है केवल उदरपूर्ति करना तो उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य ही बनचूका है। युवक युवतियों अपनी अल्पायुषमें ही हीन दीन निर्बल सन्तान के मात पिता बन उनके पोषण की चिन्ता में चकचूर हो रहे है; एक मोके में ही शरीर की क्रान्ति और चेहरे का तेज उड जाता है । हाय ! अफसोस ! ! कितने दुःख का विषय है ! ! ! कि वसन्त ऋतु में फलने फूलने के दिन होते है, वहां पत्ते भी झडते जा रहे हैं। यह कितना दुःख । जिन नवयुवकों की तरफ देश व समाज बडी २ भाशाए कर रही है, कि वे देश व समाज का उद्धार करेगें वे ही नवयुवक भाज अनेक प्रकार के गुप्त रोगों से पीडित हो जाहिर खबरे और इश्तेिहारो पर प्राशा रख प्रमेह, उपदंश, सोजाक, प्रदर नाताकत और कमजोरी को दवा के लिए सेकडों रूपये बरबाद करने में ही अपने जीवन की सफलता समझते हैं; हिन्द के लाल होनेवाले सपूत भाज प्रमानुषिक अत्याचार और अप्रकृतिक कृत्यों से संतप्त हो अपने जीवनसे हाथ धो रहे हैं देश व समाज द्रोही लोगों की प्रबल प्रेरणासे विचारे ऊगते पोदें बालविवाह रूपी अग्निकुण्ड में कुछ पडते हैं अर्थात् अपना अपक्व वीर्यका बलीदान कर अल्पायुमें ही प्रापने पीच्छे कोमलावस्था की बालाओं को सदैव के लिए वैधव्य पना देकर के यमलोकर्मे प्रस्थान कर जाते हैं। इतना ही नहीं पर बाल विधवानों की पहिलेसे जो क्रौडों की संख्या मोजुद है उसमे भी वह हित्यारे लोग दिन व दिन वृद्धि करते जा रहे हैं अफसोस !
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy