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________________ सिन्ध प्रान्तमें विहार. (१५) समय रस्तेमें स्थित आम्रवृक्ष पर पत्थर फेंके जब भाम्रप भी अपने स्वभावानुसार अपनेपर पत्थर फेंकनेवाले को भाम्रफल देता है। ठीक इसी माफिक सूरिजीके विहार दरमियान अज्ञानी जन अपने स्वभावनुसार अनेक तरहके कष्ट उपस्थित कर मुनिवरोंकी कसोटी करने लगे परन्तु मुरिजी महागज बड़े शान्त भावसे उन अज्ञानी जीवों को मधुर वचनसे धर्मबोध दे ऐसे शान्त करते थे कि उनको अपने कीये हुए दुष्कृत्यों पर पश्चात्ताप करना पड़ता था। सुवर्ण को जितना अधिक ताप दिया जाय उतना ही वह अधिक शुद्ध हो उसका मूल्य भी अधिक बढ़ जाता है । यही हाल हमारे विकारवासी मुनिपुङ्गवों का हो रहा था । इस विकट दशा को सहते हुए हमारे युथपति श्राचार्यश्रीने ( सूग्निीने ) सिन्ध प्रदेशमें पदार्पण कीया।। एक समयका जिक्र है कि मुनिमतंगो के साथ प्राचार्यश्री जंगलमें विहार करते जा रहेथे कि उसी समय कईएक घुडसवार बड़े ही वेग के साथ पीछेसे पा रहा था। उनके हाथमें विद्युतकी भांति चमकता हुआ भाला और खन्धेपर रखा हुवा धनुष्यबाणसे उनकी का-रौद्र मूर्ति और निर्दयताके प्रचंड संतापसे भयभ्रांत बने हुए बिचारे मृगादिक वनचर प्राणी अपने प्राणकी रक्षा करनेकी गरजसे उन घुडसवारोंके आगे २ भाग रहे थे । उस क्रूर वृत्तिको देख प्राचार्यश्रीको उन निरपराधी मूक प्राणीयों पर वात्सल्पभाव प्रगट हुआ और अपने पाससे जाते हुए उन घुडसवारों को संवोधन कर शान्त भावमे बोले कि-महानुभावों ! जरा ठहगे ठहगे !! मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूं । तब मुख्य घुडसवाग्ने अपना मुंह सू.
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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