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________________ (१४) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. गये जहां महागजा उपलदेवने अर्ज की कि हे भगवन् ! यहांसे सिन्ध जाने का रास्ता बहुत ही विकट है अतः मेरी इच्छा है कि कुछ प्रादमी श्रापकी सेवार्थ आपके साथ भेजें ! सूरिजीने कहा-महाराजा ! यद्यपि आपकी भावना उत्तम है परन्तु आप अच्छी तरह समझते होंगे कि-दूरारोंकी सहायता लेना मेरी समझमें एक कायरताकी निशानी है । अगर मंगलाचरणमें ही ऐसी कायरता के वश बन जाय तो आगे चलकर सफलता कैसे प्राप्त कर सकेंगे ? हे गजेन्द्र ! शेगेंके लिये सहायताकी आवश्यक्ता नहीं होती ! __ सूरिजी महागजके वीरतापूर्ण बचन सून राजा-प्रजामें एक तरहका अलौकिक प्रानंद फैल गया। अन्तमें सूरिजीके विहारकी सफलना चाहते हुए नगरके लोग वंदन-नमस्कागदि कर नगरकी ओर वापस लौटे और इधर सूरिजी महागज अपने विहारमें आगे बढने लगे. . सूरिजी महागज सपरिवार प्रानंद पूर्वक क्रमशः विहार करते जा रहे थे । रास्तेमें जैन वसतीके अभाव अनेक प्रकारके उपसर्ग हो रहे थे उनको श्राप परोपकार के लिये सहर्ष सहन कर रहे थे। सन्मानके बदले पगपग अपमान और भक्तिके बदले कठीनाईयां का सामना करना पड़ता था। कभी कभी ठहग्नेके लीये मकान, खानेको भोजन और पीनेको पानी भी नहीं मीलता था परन्तु जिन महानुभावोंने जैन धर्मके प्रचार निमित्त अपने प्यारे प्राणों की भी पर्वाह न रखी उनको क्यातो सुख और क्या दुःख ? सभी समयको एकसा ही मानते हैं । पंथीजन-मुसाफीरों का स्वभाव है कि वे चलते
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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