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(३६) जन जाति महोदय प्रकरण पांचवा.
प्रियवर ! आप लोग जैन मुनियों के आचार व्यवहार से अभी अनभिज्ञ है; कारण जैन मुनि न तो हाथों से रसोइ पकाते है और न उनके लीये बनाई हुइ रसोई उनको उपयोग में आती है; क्यों कि रसोई बनाने में जल, अमि, वनस्पति आदि की जरुरत पड़ती है और इन सब में जीव सत्ता है अर्थात् आत्मा है, अतः हम साधुओं के लीये उनको हींसा या मर्दन करना तो दूर रहा परन्तु स्पर्श करने का भी अधिकार नहीं है-आज्ञा नहीं है। जब हम उन जीवों को स्वयं तकलीफ पहुंचाना नहीं चाहते है तो दूसरों से कैसे तकलीफ-दुख पहुंचा सक्ते है ? और हमारे ही निमित्त वीचारे निर्दोष जीवों की हींसा करके बनाया हुआ भोजन का हम कैसे उपयोग कर सक्ते है ? क्यों कि हम तो चेराचर समस्त जीवों के रक्षक है न कि भक्षक !
मंत्रीश्वरने पूछा कि क्या आप जल, अग्नि और फलफूलादि वनस्पति को अपने काम में नहीं लेते है ?
आचार्यश्री:-नहीं, काम में लेना तो दूर रहा परन्तु स्पर्श तक भी नहीं करते हैं। .
मंत्रीश्वरः-आप भोजन करते हो ? पाणी पीते हो ?
आचार्यश्री:- हां, जिस रोज उपवासादि तपश्चर्या नहीं करते हैं उस रोज भोजन करते हैं और पानी भी पीते हैं ।
मंत्रीश्वरः-तो फिर आपके लीये भोजन-पाणी कहां से आता हैं ? कारण आप स्वयं बनाते नहीं और आपके लिये बनाई आप के काम में आती नहीं है।