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आचार्यश्री और मंत्रीश्वर ।
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आचार्यश्रीः —— गृहस्थ लोग अपने खाने-पीने के लीये रसोई बनाते हैं उनमें से—जब हमको भिक्षा की जरुरत होती है तब मधुकरी रुप से भिक्षा ग्रहण करते है - अर्थात् बहुत घरों से अप अल्प आहार ग्रहण करते हैं जिस से गृहस्थों को तकलीफ न पडे, हमारे निमित्त दूसरी बार भोजन बनाना भी न पडे और हम लोगों का गुजर - निर्वाह भी अच्छी तरह से हो जाय ।
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मंत्रीश्वरः – भोजन तो आप पूर्वोक्त रीतिसे प्रहण करते हैं परन्तु पानी तो आपको वही पीना पडता होगा कि जिसमें आप जीवसत्ता बतलाते हैं ?
आचार्यश्रीः – नहीं, हम कुवा, तलाव, नदी आदिका का जल नहीं पीते हैं मगर जो गृहस्थ लोगोंने अपने निजके लीये गरम जल बनाया हो उसको ले आते हैं और ठंडा करके पी लेते हैं। मंत्रीश्वरः — अगर आप की प्रथानुसार भोजन और जल
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न मिले तो फिर आप क्या करते हैं ? |
आचार्य :- ऐसे समय में भी हम खुशी मानते हुए तपवृद्धि करते हैं ।
इस वार्त्तालाप को सुनकर महाराज कुमार और मंत्रीश्वर श्राश्वर्यमुध बन गये और उन के हृदय से श्रन्तर नाद निकला कि अहो ! आश्चर्य ! अहो जैनमुनि ! अहो जैनधर्म ! अहो जैनमुनि के मोल मार्ग के कठिन नियम ! दुनिया में क्या कोई ऐसे कठिन नियम पालने वाले साधु होंगे ? एक चींटी और मकोडी तों