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(३८) जेन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. क्या परन्तु मट्टि जल, अग्नि, और वनस्पति-फलफूल को भी स्पर्श कर तनिमित्तक हिंसा के भागी नहीं बनते हैं। यह उन जैन मुनियों के श्रेष्ठतम करूणाभाव का अपूर्व परिचय है।
मन्त्रीश्वरने कहा महाराज कुमार ! कहां तो अपने मठपति लोभान्ध और कहां यह निस्पृही जैन महात्मा ? कहां तो अपने दुराचारियों का भोगविलास और व्यभिचार लीला ? और कहां इन परोपकारी महात्मामों की शान्ति और सदाचारवृत्ति ? इतना ही नहीं पर इन परम् तपस्वी साधु जनों को तो अपने शरीर तक की भी पर्वाह नहीं है । महाराज कुमार ! मैंने तो दृढ निश्चय कर लिया है कि ऐसे महात्माओं द्वारा ही जगत का उद्धार होगा इत्यादि । राजकुमारने भी अपनी सम्मति प्रदर्शित करते हुए कहा मन्त्रीश्वर ! आप का कहना सत्य है कि जो पुरुष अपना कल्याण करता है वही जगत का कल्याण कर सकता है । अस्तु। .
___पुनः मन्त्रीश्वरन अर्ज करी कि भगवान ! जैसे आप का आचार व्यवहार हो वैसा करावें इस में हम कुछ भी नहीं कह सक्ते पर हमारे नगर में पधार कर आप भूखे प्यासे न रहें । दरबार भी कल के लिए भी बहुत पश्चाताप कर रहे हैं इस वास्ते हमारी भल पर क्षमा प्रदान करें और आप नगर में पधार कर भिक्षा करावें । इस पर सूरीश्वरजी महाराजने फरमाया कि मन्त्रीश्वर आप की और दरबार की हमारे प्रति भक्ती है वह बहुत अच्छी बात है और ऐसा होना ही चाहिए । इतना ही नहीं पर जैसे हमारे प्रति आप की वात्सल्यता है वैसे ही सर्व जीवों प्रति रखना आप का परम