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________________ आचार्यश्री का व्याख्यान। (३५) कुछ दिन और चलेगा तो सनातन धर्म का सर्व नाश नजीक ही मालुम पडता है । इस लाये अपने को भी इनके सामने कुछ प्रयन करना चाहिये । इत्यादि अपने मठों में और भी विशेष मोरचा बन्धी करनी शरु कर दी। राजा, मंत्री आदि बुद्धिमान लोग बडे ही हर्ष के साथ आत्मकल्यान के लोये खूब विचार कर रहे थे । इतना तो सबको विश्वास हो गया था कि यह महात्मा खास कर निर्लोभी सदाचारी परोपकारी और ज्ञानी है जो कि भूखे-प्यासे रहने पर भी निःस्वार्थ वृत्ति से अपने पर उपकार किया है। मंत्रीश्वरने कहाःमहाराज ! आपका कहना सर्वथा सत्य है कारण कि अपने लोगों से उनको लेना-देना क्या है ? तथापि केवल निःस्वार्थ भाव से इतना परिश्रम उठा के जनता पर उपकार कर रहे है । श्रेष्ट जनों का वचन है कि जो पारमार्थिक होते हैं वे ही संसारीक जीवापर करुणादृष्टि से उपकार करते हैं । महाराज कुमार कवने कहा कि-ये सब बात तो ठीक है परन्तु उनके खाने-पीने का क्या बंदोबस्त है ? दरबारने कहा कि यह तो अपनी बडी भारी गलती हुई है । उसी समय मंत्रीश्वर को हुक्म फरमाया कि तुम जाओ और शीघ्र-सब से पहिले उनके खान-पान का सुंदर बंदोबस्त करो इस पर महाराज कुमार कक्व और मंत्रीश्वर चलकर आचार्य श्री के पास आये और अर्ज करी कि महात्माजी ! आप भोजन अपने हाथ से पकावेंगे या तैयार भोजन करने को पधारेंगे ? जैसी आज्ञा हो वैसा इंतजाम करने को हम तैयार है।
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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