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( ९८ ) जेन जाति महोदय प्रकरण छछा.
पूर्व जमाने में अच्छे घराणे में एक विवाह का जितना खर्च होता था उतना खर्च तो आज हमारे एक बन्दोले में हो जाता है यह कितना परिवर्तन ! जब पोषाक की और दृष्टिपात किया जाता है तो पूर्व जमाने में साधारण कपडों से काम चलाते थे। आज असंख्य जन्तुओं की हिंसा से बने हुए रेशम और अनेक जीवों की चर्बी से बने हुए विदेशी वस्त्र अधिक पसन्द किए जाते हैं, पूर्व जमाने में बडे २ धनाढ्य लोग चार सो पांच सो रूपयों के कपड़ों से तमाम उम्मर निकालते थे, जब आज एकेक घाघरे पर हजार दो हजार रूपये लगाये जाते हैं इतना ही नहीं बल्कि एक विवाह में कपडे की सिलाई जीतनी दर्जियों को दी जाति है उतने खर्च से पहिले धनाढ्यों के वहां विवाह हो जाता था।
अब आप आज की पोषाक की तरफ देखिए कि जिन बारीक कपडों से उन औरतों के अंगोपाङ्ग जैसे के तैसे दिखाई दे रहे हैं, क्या यह निर्लज्जता का वेश नहीं है लम्बे २ बूंघट निकालने वाली औरतों के सिर के बाल तो मनुष्य चलते फिरते भी गिन सकते हैं, फिर भी हमारे धनाढ्योंने इस पोषाक में श्रपनी इज्जत समझ रखी है इस में केवल स्त्री समाज ही दोषित नहीं है पर यह सब दोष धनाढय पुरुषों का है कि वे स्वयं ही धोतीएँ ऐसी पहनते है कि स्नान करते समय तो एक दफे नम फिरने वालों को भी लज्जा पाए विगर नहीं रहती है। वही शर्म की