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समाज में व्याखर्च. . (९७ ) जब से हमारे धनाढ्य लोगों के कुटील हृदय में अभिमान का प्रादुर्भाव हुआ तबसे वे फाजुल अधिक खर्च से ही अपनी विशेष इज्जत समझने लगे । हमारे पूर्वज अधिक द्रव्य शुभ क्षेत्र में लगा कर के आत्मकल्याण करते थे तब माधुनिक हमारे लक्ष्मीपतिजी उन सुकृतों को तो बिल्कुल भूल बैठे हैं जो कुछ करते हैं तो मान, बडाई, इर्षा, देखादेखी केवल नाम्बरी के लिए करते हैं, बात भी ठीक है कि आज फाजूल खर्चा इतना बढ़ गया है कि शुभ क्षेत्र व सुकृत कार्य उन को याद भी कहांसे आवे । धनाढ्योंने अपनी मान बडाई के मारे, समाज में इतना फिजूल खर्चा बढा दिया है कि साधारण जनना को तो अपना गृहस्थाश्रम निभाना ही मुश्किल हो गया है। __लग्न सादी की और देखते हैं कि पूर्व जमाने में वे लोग बडे २ धनी होने पर भी लापसी वगैरह माङ्गलिक भोजन से कामचला लेते थे, पर आज घर के पैसे हो चाहे कर्जदार हो अपनी इज्जत बढाने को प्रदेशी खाण्ड (मोरस) जो गायों के रक्त और हड़ियों से साफ की जाती है और असंख्य जीव मिश्रीत विदेशी मेंदे से घेवर जलेबी जो अभक्ष मानी जाती है आदि पकान बनाने में ही अ. पनी इज्जत समझ ली है, चाहे इस से अहिंसा धर्म कलङ्कित हो, चाहे असंख्य जीवों की हिंसा के भागी बने, चाहे उन के देखादेखी साधारण जनता को उस अकृत्य कार्य के लिए मरना पडे, पर हमारे धनाढ्यों को इन बातों की क्या परवाह है।