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जैनेतर विद्वानों की सम्मतिए.
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करके, जप करके, योगका साधन करके, अपने आपको मुकम्मल और पूर्ण बना लिया था.. . इत्यादि इत्यादि,
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श्रीयुत वरदाकान्त मुख्योपाध्याय एम० ए० के बंगला लेख के श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमी द्वारा अनुवादित हिन्दी लेखसे उद्धृत कुछ वाक्य.
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(१) हमारे देशमें जैनधर्मकी आदि उत्पत्ति, शिक्षा नेता और उद्देश्य सम्न्धी कितने ही भ्रान्तमत प्रचलित हैं इसलिये हम लोग जैनियोसे घृणा करते रहते हैं. । इसलिए मैं इस लेख में दूर करने की चेष्टा करूंगा ।
भ्रम
(२) जैन निग़मषमोजी ( मांसत्यागी ) क्षत्रियों का धर्म है । " हिंसा परमोधर्मः " इसकी सार शिक्षा प्रोर जड़ है । इस मतमें " जीव हिंसा नहीं करना, किसी जीवको कष्ट नहीं देना यही श्रेष्ठ धर्म है ।
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(३) शंकराचार्य महाराज स्वयं स्वीकार करते हैं कि जैनधर्म प्रति प्राचीन काल से है । वे वादरायण व्यास के वेदान्त सूत्र के I भाष्य में कहतें हैं कि दूसरे अध्याय के द्वितीय पाद के सूत्र ३३-३६ जैनधर्म ही के सम्बन्ध में हैं। शारीरिक मीमांसा के भाष्यकार रामानुजजी का भी यही मत है ।
(४) योगवाशिष्ट रामायण वैराग्य प्रकरण, अध्याय १५ श्लोक ८ में श्री रामचन्द्रजी जिनेन्द्र के सदृश शान्त प्रकृति होने की इच्छा प्रकाश करते हैं, यथा: