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________________ (५८) जनजातिमहोदय प्र० प्रकरण नाहं रामो नमे वांछा भावेषु च न मे मनः । शान्तिमासितु मेच्छामि स्वात्मनीव जिनो यथा ॥ (५) रामायण, बालकांड, सर्ग १४, श्लोक २२ में राजा दशरथने श्रमशागणों (अर्थात् जैन मुनियों ) का अतिथिसत्कार किया, ऐसा लिखा है: __ तापसा जते चापि श्रमणा भुंजते तया । भूषण टीका में श्रमण शब्दका अर्थ दिगम्बर ( अर्थात् सर्व वनादि रहित जैनमुनि ) किया है यथाःश्रमणा दिगम्बराः श्रमणा वातवसना इति निघण्टुः । (६) शाकटायन के उणादि सूत्रमें 'जिन' शब्द व्यवहृत हुआ है: इणजस जिनीडुष्यविभ्योनक सूत्र २५९ पाद ३, सिद्धान्त कौमुदी के कर्त्ताने इस सूत्रकी व्याख्या में 'जिनोऽर्हन् ,' कहा है। मेदनीकोष में भी 'जिन' शब्द का अर्थ · अर्हत् । जैनधर्मके प्रादि प्रचारक ' है। वृत्तिकारगण भी · जिन' के अर्थमें · अर्हत् ' कहते है यथा उणादि सूत्र सिद्धान्त कौमुदी। शाकटायन ने किस समय उणादि सूत्रकी रचना की थी ? वास्क की निरुक्त में शाकटायन के नाम का उल्लेख है । भोर पाणिनिके बहुत समय पहिले निरुक्त बना है इसे सभी स्वीकार करते हैं।
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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