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(५०) जैन जाति महोदय प्र० प्रकरण. " दृष्टिवदानु श्रविकासह्यविशुद्धि क्षयातिशययुक्त"
सांख्यकारिका ॥ गौडपाद–सांख्यकारिका के भाष्य में निम्न लिखित श्लोक उद्धृत करके कपिल ऋषि के मतका समर्थन करते है:
ताते तद्वहुशोभ्यस्तं जन्मजन्मांतरेष्वपि । - त्रयी धर्ममधर्माढ्य न सम्यक्प्रतिभानि मे ॥
अर्थात्-हे पिता ! वर्तमान और गत जन्म में मैंने बैदिक धर्मका अभ्यास किया है; परन्तु मैं इस धर्म का पक्षपाती नहीं हूं. क्योंकि यह अधर्म-पूर्ण है।
(१०) कपिलसूत्रका भाष्यकार विज्ञान भिक्षु " मार्कण्डेय पुराणसे" निम्न लिखित श्लोक उध्धृत करके कपिलमत का समर्थन करता है:
तस्माद्यास्याम्यहं तात दृष्टेमं दुःखसन्निधिम् ।
त्रयी धर्ममधाढ्यं किंपाकफलसन्निभम् ॥
अर्थात्-हे तात ! वैदिक धर्मको सब प्रकार अधर्म और निष्ठुरता पूर्ण देखकर मैं किस प्रकार इसका अनुकरण करूं ? वैदिक धर्म किंपाक फल के समान बाह्यमें सौन्दर्य किन्तु भीतर हलाहल (विष) पूर्ण है"।
(११) " महाभारत" का मत इस विषयमें जानने के लिये अश्वमेध पर्व, अनुगीत ४६, अध्याय २, श्लोक १२ की नीलकंठ कृत टीका पढ़िये ।