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जैन जातिमहोदय प्रकरण पांचवा.
होता है कि सम्प्रति नरेश जैनधर्म के प्रचार में बहुत अधिक
अभिरुचि रखता था ।
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एक बार राजा सम्प्रतिने यह अभिलाषा श्री आचार्य सुहस्ती सूरी महाराज के पास प्रकट की कि मैं एक जैन सभा को एकत्रित करना चाहता हूँ । आचार्यश्रीने उत्तर दिया “ जहा सुखम् | राजा सम्प्रतिने इस सभा में दूर दूर से अनेक मुनिराजाओं को आमंत्रित किया । बड़े बड़े सेठ साहुकार भी पर्याप्त संख्या में निमंत्रित किये गये । सभा के अध्यक्ष सर्व सम्मति से आचार्य श्री सुहस्ती सूरीजी महाराज निर्वाचित हुए । सभा का जमघट खूब हुआ तथा सभापति के मन से ज्ञान और विज्ञान के तत्वों से पूरित आभभाषण सुनाया गया । इस भाषण में मुख्यतया तीन विषयों का विशद विवेचन किया गया था । १-महावरि स्वामी का शासन २ - जैनधर्म की महत्ता ३- तात्कालीन समाज की धार्मिक प्रगति । सभासदों की ओर से राजा को धन्यवाद भी दिया गया ।
सभापति श्री सुहस्तिसूरीजीने एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव रखा कि यह सभा जिस उद्देश्य से एकत्रित हुई है उस को कार्यरूप में परिणित करने के लिये यह परमावश्यक समझती है कि जिस प्रकार मौर्यकुल मुकुटमणि सम्राट चन्द्रगुप्तने भारत से बाहिर वि - देशों में जैनधर्म का प्रचार किया उसी तरह राजा सम्प्रति से भी आशा की जाती है कि विदेशों में जैनधर्म का प्रचार करने के हेतु उपदेशक - भेज कर ऐसा वातावरण उत्पन्न करदे कि अनार्य