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________________ - जैन समाज की वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर. ( १७ ) खोल दिया था कि सर्व साधारण जनता जैन धर्म को स्वीकार कर आत्मकल्याण कर सके । न कि पूर्वाचार्योंने धर्म का ठेका किसी एक व्यक्ती जाती व वर्ण को ही दे रखा था कि जिस का दोष पूर्वाचार्यो पर लगाया जाय ? जरा ज्ञान लोचन से आलोचना कीजीए कि उस जमाना की भद्रिक जनता उन व्यभिचारी कुगुरु पाखण्डियों की माया आल में फंस कर तथा वर्णशंकर जातियों में विभक्त हो क्लेश कदाग्रह उच्च नीच का भेदभाव अर्थात् अभिमान के वशीभूत हो अपने शक्ती तन्तुओं को किस कदर नष्ट कर रही थी । यज्ञादि में हजारों लाखों निरपराधि प्राणियों के बलीदान से अधर्म को अपनी चरम सीमा तक पहुंचा दिया था। मांस मदिरादि दुर्व्यसन से तो मानो नरक का दरवाजा ही खोल रक्खा था । व्यमिचार सेवन में तो उन पाखण्डियोंने स्वर्ग और मोक्ष ही बतला दिया, इतना नहीं पर उन पाखण्डियों के जोर जुलम से चारों और भृष्टाचार की भठ्ठीयों धधक रही थी जनता में अशान्ति और त्राहि त्राहि मच रही थी । ठीक उसी समय आचार्यश्रीने अपने आत्मबल और पूर्ण परिश्रम अर्थात् अनेक कठनाइयों का सामना करते हुए अपने सदुपदेश द्वारा उन भद्रिक जनता को प्रतिबोधदे उन के अचान मिध्यात्व उच्च नीच के भेदभाव और मिथ्या अभिमान को समूल बष्ट कर समभावी बना एक सूत्र में गुंथित कर महाजन संघ की २
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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