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जैन जाति महोदय प्र० तीसरा.
संयम और घौर तपश्चर्य के जरिये अठारादोष और चारे धनघातिकर्मरूपी शत्रुओं का सर्वता नाशकर बाह्य, श्री. अष्टमहाप्रतिहार चौतीस अतिशयादि और अमिंतर कैवल्यज्ञान, कैवल्यदर्शनरूप लक्ष्मी को प्राप्ति कर ली हो जिसके द्वारा लोकालोक के चराचर पदार्थों को अपने तीक्षण ज्ञानद्वारा हस्तामल की मात्राफीक देख के पर उपकारार्थ तत्त्वज्ञान का प्रकाश किया इस विषय में वडे वडे प्रन्थ निर्माण हो चुके है अर्थात् जिन्हों का जीवन ही जनता का उद्धार के लिये है जिन्ह का फरमाया हुवा सध्धर्म और सदागम जनता का कल्याण करन मे ध्ययरूप है इत्यादि इन महान् आत्मा को जैन, अरिहन्त - सर्वज्ञ ईश्वर मानते हैं. (२) सिद्ध - जो सकल कर्मो का नाशकर सम्पूर्ण आत्मभाव को विकाशित कर इस अ. रापार संसार से मुक्त हो अक्षयधाम ( मोक्ष ) पधार गये जहाँ जन्म जरा मृत्यु आदि कोइ प्रकार की उपाधि नहीं है अपने कैवल्यज्ञान कैवल्य दर्शनद्वारा लोकालोक के भावों को देख रहे है स्वगुण के भोक्ता अपने ही द्रव्यगुण पर्य्याय मे रमणता कर रहे उन को जैन सिद्ध मानते है
१ मिध्यात्व, अज्ञान, अव्रत, राग, द्वेष, मोह, निंद्रा, हास, भय, शोक, जुगप्सा, रति, अरति, दानान्तराय, लामान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, वीर्योन्तराय एवं १८ दोषणरहित अरिहन्त होते है ।
२ ज्ञानावर्णिय, दर्शनावर्गिय, वेदंनिय, मोहनिय, आयुष्य नाम गोत्र अन्तराय एवं आठ जिसमे नं. १-२-४-८ घाती कर्म है ।
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३ आशोकवृक्षः सुरपुष्पवष्टि, दिव्यध्वनिश्व परमासनं च ।
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भामण्डल दुन्दुभीरातपत्रं, सत्प्रतिहार्यांणि जिनेश्वराणाम् ||