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जैनधर्मकी महत्त्वता.
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मुश्किल है हाँ गुरु व ज्ञानियोंका सत्संग कर उन पवित्र ज्ञानको समझ लिया हो तो फिर इतर धर्म तो उसकों बचोका खेल जेसा ही ज्ञात होता है जैसे जैन धर्मका पात्मज्ञान उच दर्जेका है वैसे ही जैनोंका प्राचार व्यवहार खान पान रित रिवाज भी उत्तम है जैन धर्मके तत्त्वज्ञानमें 'स्याद्वाद' और प्राचार ज्ञानमें 'अहिंसा परमो धर्म । मुख्य सिद्धान्त है हे राजन् ! यह धर्म सम्पूर्ण ज्ञानवाले सर्वज्ञ ईश्वरका फरमाया हुवा है जैन धर्म में मांस मदिरा सिकार परस्त्री चौर्य जुवा और वैश्या एवं सात कुव्यसन बिलकुल निषेध है और रांधा हुवा वासी अन्न विद्वल अनंतकाय · रात्रिभोजनादि अभक्ष पदार्थों को सर्वता त्याज्य वत लाया है सुवा सुतक और ऋतुधर्म का वडामारी परहेज रखा जाता है अगर पूर्वोक्त कार्य के लिये कोइ भी धर्म छुट देता हो तो उन के लिये जैनधर्म घृणा की दृष्टि से देखता है जैनधर्म के उपदेशकों का फर्ज है की कोइ भद्रिक जीव अज्ञातपणे एसे अपवित्र कार्यों को सेवन करता हो तो उसको उपदेशद्वारा त्यागकरवाके दुर्गतिमे पडते हुवे भव्यों का उद्धार करे हे राजन् । अब आप - जरा ध्यान लगा के जैनधर्म को भी सुन लिजिये ।
. जैन धर्म का इष्ट-जैन धर्म के अन्दर पंचपरमेष्टि की मुख्य मान्यता है जैसे अरिहन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधु ।
(१) अरिहन्त-जिन्द पवित्र आत्माओने उच कोटि का