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________________ ( ६२ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. संशोधन कर श्रात्म कल्याण करनेको समर्थ हो उसी धर्मको स्वीकार करना चाहिये यहतो आपखुद ही समझ सके हो की पूर्वोक्त मांस मदिरा मैथुनादि अत्याचार करनेवालोंसे सद्ज्ञानकी प्राप्ति होना तो सर्वथा असंभव ही है वास्ते श्रात्म कल्याणके लिये सबसे पहिले सत्गुरु अर्थात् सत्संगकी आवश्यक्ता है कथञ्चित् सद्गुरुका समागम मिल भी जावे तो भी सदागमका श्रवण मिलना अति कठिन है कारण एसे समय में अनेक बाधाए आया करती है पर सदागम श्रवण वगरह हिताहितके मार्ग की खबर नहीं पडती है अगर सदागमका श्रवण करना भी किसी पुन्योदय मिल भी गया, पर पहलेसे मिध्यागमरूपी वासना हृदयमें जमी हो तो सदागम पर श्रद्धा जमना मुश्किल है | कदाच सत्यको सत्य समज लिया पर कितनेक तो मत्त बन्धन में बन्धे हुवे कितनेक पूर्वजों कि लकीर के फकीर बने हुवे और कितनेक कुल परम्पराकों लेकर सत्यको स्वीकार करनेमें हिचकते है अर्थात् सरमाते है । अगर कितनेक एसे हिम्मत बहादुर भी होते है कि असत्यको धीकारके सत्यको स्वीकार भी कर लेते है पर उस सत्य धर्म पर पाबंदी रख पुरुषार्थ करना सबसे ही कठिन है । परन्तु श्रात्माके कल्याणकी इच्छावालोंको पूर्वोक्त कोइ भी बात दुःसाध्य नहीं है । हे राजन् । इस भूमण्डल पर अनेक धर्म प्रचलित है पर सबसे प्राचीन और सर्वोत्तम धर्म है तो एक जैन धर्म ही है जैन धर्मका आत्मज्ञान तत्त्वज्ञान इतना तो उब कोटीका है कि साधारण मनुष्योंके एकदम समझमें जाना ही
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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