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________________ (८) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. लोगोंने बड़े ही उत्साहसे नगर को विविध वस्तुओंसे शृंगारकर सुंदर बनवाया. एवं महाराजा उपलदेवने हाती, अश्व, रथ और पैदल आदि चतुर्विध सैन्ययुक्त हो विविध वाद्यों के साथ बड़े समारोहसे आचार्यश्री का नगरप्रवेशरुप महोत्सव किया । केवल राजाने ही नहीं परन्तु देवी सञ्चायिकाने भी अपनी सहचरीयों को साथमे ले सूरिजी महाराज को वंदन-नमस्कारादि करके अच्छा स्वागत किया । आचार्यश्रीने संघके साथ श्री महावीर प्रभुकी यात्रा कर एक विशाल स्थानमें स्थिरता करी कि जहां सबलोग सूखपूर्वक बैठ सके । यह स्थान दूसरा कोई नहीं परन्तु वही लुणाद्रिगिरि था कि जहां प्राचार्यश्री रत्नप्रभसूरिने इन लोगो को जैन बनाये थे सब लोग सूरिजी महाराज कों वन्दन नमस्कार कर अपने अपने उचित स्थानपर बेठ गये । तत्पश्चात् सुरीश्वरजी महाराज ने मनोहर मंगलाचरण और मधुर ध्वनि के साथ अमृतमय देशना देना प्रारंभ किया। संसार की असारता, लक्ष्मी की चञ्चलता, शरीर की अनित्यता, कुटुम्ब की स्वार्थप्रीयता मनुष्य जन्मादि उत्तम सामग्री की दुर्लभ्यता और देवगुरु के निमित्त कारणसे सम्यक् शानदर्शन चारित्र कि प्राप्ति और आखिरमें अक्षय स्थान की महत्वता पर खुब विवेचन कर श्रोतागण के हृदय पट्टपर बडा भारी प्रभाव डाला । अन्तमें प्राचार्यश्रीने फरमाया सद्गृहस्थों ! एक समय यह था कि इस नगर को मैंने दुगचारीयों के केंद्रस्थान के रूपमें देखा था आज उसी नगर को सदाचारियों के स्वर्गतुल्य देख रहा यह परोपकार परायण स्वर्गस्थ आचार्यश्री रत्नप्रभसूरश्विरजी के
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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