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जैन जाति महोदय प्र० तीसरा.
मातेव सर्वभूतानां महिंसा हितकारिणी । सैिव हि संसारमरावमृत सारिणिः ॥ १ ॥ अहिंसा दुःख दावाग्नि प्रवृषेण्य धनाऽऽवली ।
भवभ्रमिरु जातनाम हिंसा परमौषधी || २ ||
अर्थात् अहिंसा सब प्राणियों की हित करनेवाली माता के समान है और अहिंसा ही संसाररूप भरू निर्जल ) देशमें अमृत की नाली के तुल्य है तथा दुःखरूप दावानलको शान्त करने के लिये वर्षाकाल की मेघपंक्ति के समान है एवं भव भ्रमण रूप महारोग से दुःखी जीवों के लिये परमौषधी के तरह है.
इत्यादि अनेक शास्त्र और युक्तियोंद्वारा आचार्यश्रीने उन श्रोतागण र अहिंसा भगवती का ऐसा जोरदार प्रभाव डालाकी जिससे राजा और प्रजा के हृदय से उस वृणित यज्ञ कर्मरूपी मिध्या अन्धकार दूर हो गया और हिंसा भगवतीरूपी सूर्य की कीरणे प्रकाशित होने लगी.
राजा व नागरिक लोग सूरिजी महाराज का व्याख्यान सुनके बडे ही हर्पित-आनंदित हुवे और बोले की भगवान् श्राप का फरमान अक्षरशः सत्य है. हमलोग इतने दिन अज्ञानता के किash फसे हुवे थे. हमलोग हरकीसी कार्य में यज्ञ करनाही धर्म और शान्ति मानते थे, पर आज आपश्री की देशनासे हमलोगो को ठीक ज्ञान हो गया की प्राणियों को तकलीफ देने से भी परभव में बदला देना पडता है तो फिर उनके प्राणों को नष्ट कर देना यह धर्म नहीं पर