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सूरिजी का उपदेश.
रूगपम ममजीर्णाजीवितं कालकूटा
दभिलषति वधाद् यः प्राणिनां धर्ममिच्छेत् ॥ १ ॥
अर्थात् जो पुरुष प्राणियो के बधसे धर्म की इच्छा करता है वह दावानलसे कमल की इच्छा, सूर्य के अस्त होनेपर दिनकी वाँच्छा, सर्पके मुखसे अमृत की अभिलाषा, विवाद के अन्दर साधुबाद, अजीर्णसे रोगकी शान्ति, और हलाहल जहरसे जीने की इच्छा करता है अर्थात् पूर्वोक्त कल्पनाऐ करना वृथा है इसीमाफीक हिंसासे धर्मकी इच्छा करना भी निरर्थक है कारण पूर्व महर्षियों ने सर्व धर्ममें अहिंसा और सर्व दानमें अभयदान को प्रधान माना है कहा है कि
न गोप्रदानं न महीपदानं नाऽन्नपदानं हि तथाप्रदानम् । - यथा वादन्तीह बुधाः प्रदानं सर्व प्रदानेष्वभय प्रदानम् ।।
अर्थात् सर्व दानों मे जैसा अभयदान को उत्तम माना है वैसा गोदान, सम्पुर्णपृथ्वीदान और अन्नदानको भी नहीं माना है हे राजन् । हिंसा करना धर्म नहीं पर शास्त्रकारोंने हिंसा को, धर्म नष्ट करनेवाली ही बतलाइ है।
धर्मोपघात कस्त्वेष समारंभ स्तव प्रभो ।
नायं धर्मकृतो यज्ञो नहिं साधर्म उच्यते ॥ (सुगमार्थ) .. हे नग्नाथ । अहिंसा भगवती का महात्व महार्षियों ने किस
कदर किया है उनको भी शाप जरा ध्यान लगा के सुनिये ।