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जैन जाति महोदय प्र० तीसरा.
का नाश कर आत्माको पवित्र बनाना विप्रोंकापरम कर्तव्य अर्थात् इसको भाव यज्ञ कहते है इस भाव यज्ञसे जीव स्वर्ग व मोक्षका अधिकारी बन सक्ता है पर मांस मदिर के लोलुपी लोग पशुहिंसा रूपी यज्ञकर खुद नरक जाते है और विचारे भद्रिक जीवको नरक भेजने का घौर अधर्म करते है देखिये वराहावतरने मांस भक्षण करनेवालो को अठारवा देषितमाना है ।
यस्तु मात्स्यानि मांसानि भक्षयित्वा प्रपद्यते । अष्टादशाधं च कल्पयामि वसुन्धरा ।। १ ।। और भी देखिये
देवापहार व्याजेन, यज्ञव्याजेन येऽथवा । घ्नन्ति जन्तून गतघृणा घोरं ते यान्ति दुर्गतिम् ॥१॥
अर्थात् देव की पूजा निमित्त या यज्ञकर्म के हेतुसे जो निर्दय पुरुष प्राणियों को मारते है वह घौर दूरगतिमे जाता है। फिर भी सुनिये वेदान्तियो के वचन -
अन्धे तमसि मज्जमठ पशुभिर्यजामहे ।
हिंसा नाम भवेद् धर्मो, न भूतो न भविष्यति ॥ १ ॥
अर्थात् — जो लोग यज्ञ करते है वह अन्धकारमय स्थानमे (नरक) डुबते है क्योंकि हिंसासे न कबी धर्म हुवा न होगा. हिंसासे धर्म की इच्छा रखनेवालो के लिये शास्त्रकारोने ठीक कहा है
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स कमल वनमग्रेर्वासरं भास्वदस्तादमृतमुरगात् साधुवादं विवादात् ।