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________________ सुरिजीका धर्मोपदेश. पात्र बन रहे है उनको पुनः सद्मार्ग बतलाना हमारा परम् कर्त्तव्य है इतना ही नहीपर इस कार्य के लिये हमने हमारा जीवन ही अर्पण करदीया है । महानुभावों ! तुष्यन्ति भौजनैविप्राः, मयूर घनगज्जिते । साधवाः परकल्याणैः, खलपर विपतिभिः ॥ ५ ॥ जैसे विप्रलोगो को भोजनमिलनासे संतुष्ट होते है घनगज. नासे मयूरमग्न रहते है पर के विपतसे खल पुरुष खुशीमनाते है वैसे ही साधुजन परकल्याणमें ही आनन्द मानते है । हे विनों ! श्रीमालनगरके सज्जनोंने हजारो लाखो निरापराधि प्राणियों को अभयदान दिया क्या आप उसे बुरा समझते हो ? और यज्ञके लिये एकत्र किये हुवे असंख्य प्राणियों को बलीदान कर उनका मांस खाना अच्छा समझते हो ? भलो आप ही अपने दीलमें सोचियें कि आपके भाई कोइ नरमेघ यज्ञकर आपको बलीदान करदे तो आपकों दुख होता है या खुशी ? जटाधारियोंने इसका कुच्छभी जबाव नहीं दीया । सूरिजीने कहाँ महानुभावो । प्राणियों की घौर हिंसारूप यज्ञका त्यागकर शास्त्रके आदेश मश्राफीक भाव यज्ञ करो- . सत्य यूपं तपोमग्निः कर्मणा समाधीमम् । अहिंसा महुतिदद्या । देवं यज्ञ सतांमतः ॥१॥ अर्थात् सत्यकायूप तप की अग्नि कर्मो की समाधी व अहिंसारूप आहुतिसे आत्मा के साथ चिरकालसे लगे हुवे को
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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